यह कहानी उस दौर की है, जब बिहार की चुनावी हवा में धूल उड़ती थी, लेकिन उस धूल में सादगी की महक घुली होती थी। दरअसल, बात 50 और 60 के दशक की है, जब चुनाव प्रचार आज के हाई-टेक शोर से कोसों दूर था। ये बात बिहार के पहले विधानसभा चुनाव की है, जो आजादी के बाद 1952 में हुआ था।
1952 के बिहार के पहले विधानसभा चुनाव की कल्पना कीजिए, जब दूर-दूर तक कच्ची और धूल भरी सड़कें थीं। इन सड़कों पर न एसयूवी के काफिले थे, न हेलीकॉप्टर की गड़गड़ाहट। प्रचार हो रहा था तो बस बैलगाड़ी, टमटम और साइकिल से। उस दौर में ऐसे बहुत कम ही उम्मीदवार या नेता होते थे, जो मोटरसाइकिल और कार से चुनाव प्रचार के लिए निकलते थे।
बिहार के चुनाव में एक ऐसे ही शख्स रहे, जिन्होंने बैलगाड़ी और टमटम से चुनाव प्रचार कर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे और वह बिहार के पहले मुख्यमंत्री हुए। जी हां, बात हो रही है बिहार के पहले मुख्यमत्री डॉ. श्रीकृष्ण सिंह की, जिन्हें लोग प्यार से ‘श्री बाबू’ भी कहा करते थे। वो उन दिग्गज नेताओं में शुमार थे, जो किसी फाइव स्टार व्यवस्था पर निर्भर नहीं थे।
सत्तू, नींबू, नमक और भुंजा
जब ‘श्री बाबू’ गांव-गांव निकलते थे, तो उनके झोले में होता था- सत्तू, नींबू, नमक और भुंजा। यही उनका चुनावी लंच और डिनर होता था। गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि नेता और उनके समर्थक बैलगाड़ी या टमटम पर सवार होकर निकलते थे। न पेट्रोल का खर्च, न लाखों का किराया। समर्थक नारे लगाते और नेता सीधे जनता के बीच बैठकर संवाद करते थे।
दरअसल,उस दौर में भी चुनावी रैलियां और सभाएं होती थीं, लेकिन उनका स्वरूप आज जैसा भव्य नहीं था। ज्यादातर लोग पैदल ही सभा स्थल तक जाते थे और अपने साथ भूजा या सत्तू लेकर चलते थे, ताकि रास्ते में भूख लगने पर खा सकें। नेता भी अपनी सादगी के लिए जाने जाते थे। उनके खर्च न के बराबर था। उस समय एक चुनाव लड़ने का खर्च बहुत कम होता था। चुनाव आयोग की भी कोई सख्त गाइडलाइंस नहीं थीं। एक प्रत्याशी का कुल खर्च कुछ हजार रुपये में ही सिमट जाता था।
जनता के बीच वोट मांगने नहीं जाते थे
हालांकि, अब सोशल मीडिया चुनाव प्रचार का ट्रेंड आ गया है। उम्मीदवार अपनी छवि को बेहतर बनाने और विपक्षी दलों पर हमला करने के लिए डिजिटल मार्केटिंग एजेंसियों का सहारा लेते हैं। अब एक प्रत्याशी का चुनाव खर्च लाखों से लेकर करोड़ों रुपये तक पहुंच जाता है। लेकिन बिहार के पहले मुख्यमंत्री डॉ. श्रीकृष्ण सिंह ने अपना पहला चुनाव बैलगाड़ी, टमटम और साइकिल से लड़ा। कहा जाता है कि श्री बाबू नामांकन दाखिल करने के बाद क्षेत्र नहीं आते थे। नामांकन करने के बाद वह जनता के बीच वोट मांगने नहीं जाते थे। उनका मानना था कि अगर कोई जनप्रतिनिधि पांच साल तक जनता के लिए ईमानदारी से काम करेगा, तो उसे चुनाव में वोट मांगने की जरूरत नहीं पड़ेगी। शायद इसी कारण उन्होंने कभी कोई चुनाव नहीं हारा।